
मेरे बारे में
मेरे बारे में जो बातें मैं आपको बता सकता हूँ वो कोई दूसरा शायद उतनी सटीकता से न कह पाए इसलिए आज मैं ही आपको अपने बारे में कुछ कहता हूँ |
बचपन से ही मुझे माता-पिता, दादा-दादी व नाना-नानी इन सब से उन्नत संस्कार और अध्यात्म का प्रथम पथ मिला और फिर सात वर्ष की आयु में मेरा मिलना मेरे गुरु से हुआ। उन्होंने योग आयुर्वेद व वेदांत के मार्ग पर मुझे चलाया, और मेरे गुरु के प्रति जब मेरा पूर्ण समर्पण हुआ, तब उन्होंने केवल इतना कहा — “जाओ, और ऋषि-संस्कृति को दुनिया के अंतिम छोर तक पहुँचा दो।”
जो मैंने सीखा अपने गुरुजनों से जो मैंने पाया उसे स्वयं तक ही न रख कर औरों का भी यदि उस से जीवन रूपान्तरित हो सके तो ये मेरे जीवन की धन्यता होगी, उसी में मैं धीर-धीरे लग गया | वैदिक शिक्षा के साथ-साथ स्कूली शिक्षा भी माता-पिता के निर्देशों से लेता गया और सीखने को कही से भी कुछ मिल जाए वो जीवन में काम आता ही है |
बचपन में गुरुजनों के संरक्षण में जहाँ दिन की शुरुवात वैदिक यज्ञ और होम से होती रही तो वही आज मैंने अपने कर्म को ही अपना धर्मं मानकर सतत कार्य करने की शक्ति भी वहीँ से पाई |
प्रारंभ में आसपास बगीचों में और कहीं-कहीं मंदिरों में योग सिखाना – और फिर जीवन यापन के लिए कुछ समय स्कूलों में भी पढ़ाने और योग आदि सिखाने का कार्य मुझे मिल जाता रहा सो मैं कर लेता |
अध्यात्म से मेरा जुड़ाव भी मेरे गुरुजनों की ही देन है –
गुरुजनों के आशीर्वाद से कुछ समय तक रामकथा और भागवत कथा करने की सेवा का अवसर भी कुछ समय मुझे मिला |
फिर समय का आह्वान हुआ — कि मैं रोग और दुःख से पीड़ित मनुष्यों की सेवा में वापिस से पुनः प्रवृत्त होऊं। आज लगभग छब्बीस से सत्ताईस वर्ष बीत चुके हैं मुझे प्रथम बार अपने गुरु के सानिध्य में जब मैं पहली बार पहुंचा था जहाँ से मगल यात्रा प्रारंभ हुई |
बचपन में ही सात वर्ष की आयु से मुझे मेरे गुरु और संतजनों सान्निध्य मिला
जिसने मुझे गढ़ा, इस काबिल बनाया की मैं किसी के काम आ सकूँ |
धीरे-धीरे विश्व भर के लिए कार्य करने का भाव प्रबल होता गया तो फिर कुछ मित्र सज्जनों आदि के साथ से एक छोटा-सा आश्रम अमृतसर में ही स्थापित किया, जहाँ रोगियों का निःशुल्क उपचार होता था। वैद्य आदि की व्यवस्था रोगियों पीड़ितों के लिए सब मैं अपने ही देख-रेख में करवाता था | अध्यात्म और जीवन के गहरे लक्ष्य लेकर अनेकानेक साधक भी वहीँ पहुँच जाया करते थे | किराए की भूमि पर आरंभ हुआ वह प्रयत्न कुछ समय तक ही चल सका, परंतु संकल्प का प्रवाह कभी रुका नहीं।
फिर जन्म हुआ “आनन्दम आयुर्वेद” का — एक ऐसे प्रकल्प का, जहाँ उन औषधियों का निर्माण होता है, जिनकी आवश्यकता देशभर के वैद्य अपने रोगियों के उपचार में महसूस करते हैं। जिनका वर्णन ग्रंथो में तो मिलता है किन्तु वे आजकल बनते नहीं, और वो सबके लिए उपलब्ध नहीं हैं – तो फिर क्या.. मैंने एक-एक करके ऐसे वो सब उत्पाद / औषधियां चिन्हित करके उनपर काम करना शुरू कर दिया और आज भी वह कार्य अनवरत चल रहा है जिसमें आप सब के सहयोग की कभी कमी नहीं आई | आज भी मेरा अधिकतर समय इसी लोक कल्याणकारी कार्य को समर्पित रहता है।
इसके साथ वृन्दावन, अमृतसर और पंचकुला जैसे स्थलों पर “आनन्दम क्लिनिक्स” की स्थापना हुई, जहाँ आयुर्वेद अपने मूल स्वरूप में जीवित है।
मेरा ध्यान केवल चिकित्सा पर नहीं, चिकित्सक निर्माण पर भी रहता है —
ताकि वह दिव्य धारा, जो ऋषियों से चली, आगे भी अविरल बहे।
मेरा प्रयोजन व्यापार नहीं, व्यवस्था का शुद्धिकरण है —
ताकि स्वास्थ्य और संस्कृति एक साथ फलें।
इसी हेतु मैंने “zaimboo” नाम से एक मार्केटप्लेस की शुरुवात की —
जहाँ भारतीय कारीगर और साधक अपने जीवनोपयोगी उत्पाद विश्व तक पहुँचा सकें।
यह zaimboo नाम लिया गया है,जम्भूद्वीप से — भारत के मूल नाम से..
“योगमय भारत यात्रा” देव उठनी एकादशी (1 नवम्बर, 2025) को अमृतसर से प्रारंभ हुई ।
इस यात्रा का प्रयोजन केवल इतना है कि हमारी ऋषि संस्कृति अंतिम जनमानस तक पहुँचे,
ताकि हर प्राणी अपने परम लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सके।
कर्म के मध्य भी मैं जीवन का रस पाना नहीं भूलता — बाँसुरी व हारमोनियम बजाना और उसी में लीन हो जाना — ये सब मेरे आत्म-संवाद के क्षण मैं अपने लिए समय-समय पर सुबह-सुबह निकाल ही लेता हूँ। रसोई मेरे लिए साधना का एक रूप है।
अपने सहकर्मियों और परिवार के लिए कुछ उत्तम पकाना, दिन भर अपने टीम के साथ मिलकर कार्य करना और फिर शाम को आप सब के और साधकों के पत्र / कमेंट्स आदि पढ़ना ये मेरी दैनिक चर्या है | यदि मैं सेवा के क्षेत्र पर हूँ तो फिर अप सब से संवाद करना / जुड़ना यही मुख्य कार्य और लक्ष्य भी दिन भर रहता है |
मेरे जीवन का सूत्र है — “चरेवेति चरेवेति।” चलते रहो — समता में, सजगता से..
सुख-दुःख, हानि-लाभ, मिलना बिछुड़ना ये सब जीवन में होगा इन सब से जुड़ना नहीं | सतत स्वयं को परमात्मा का मानें.. फिर आपका हर कार्य साधना व उत्सव बन जायेगा |
मेरी धर्मपत्नी, जो स्वयं अत्यंत आध्यात्मिक आत्मा हैं, मेरे प्रत्येक कार्य में मौन परंतु दृढ़ सहयोगिनी हैं। माता-पिता की सेवा भी अधिक वही संभालती हैं, जब मैं यात्रा या सेवा में होता हूँ — उन्हीं की निष्ठा से मैं निश्चिन्त होकर कर्म-पथ पर अग्रसर रहता हूँ।
यदि आप भी इस यज्ञ में,
ऋषि-संस्कृति को दुनिया के अंतिम द्वार तक पहुँचाने के, इस अभियान में,
किसी भी रूप में सहभागी बन सकें —
तो वह मेरा परम सौभाग्य होगा।
