आयुर्वेद केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की एक सम्पूर्ण कला है।
इसका उद्देश्य है – “स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं।”
अर्थात् – स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी के रोगों का शमन करना।
आचार्य चरक ने आयुर्वेद को आठ प्रमुख अंगों में विभाजित किया है जिन्हें अष्टांग आयुर्वेद कहा जाता है।
प्रत्येक अंग शरीर के विशेष रोगों की चिकित्सा से संबंधित है।
श्लोक – अष्टांग आयुर्वेद
“कायबालग्रह ऊर्ध्वाङ्गशल्यदंष्ट्रा जरावृषान्।
अष्टौ अङ्गानि तस्याहुस्तन्त्रस्यायुर्वेदस्य च॥” (अष्टांग हृदयम्)
भावार्थ: आयुर्वेद के आठ अंग हैं: काय, बाल (कौमार), ग्रह, ऊर्ध्वांग, शल्य, दंष्ट्रा, जर (रसायन), और वृष (वाजीकरण)।
🌿 1. कायचिकित्सा (Internal Medicine) यह अंग शरीर के आंतरिक रोगों की चिकित्सा करता है, जैसे— ज्वर (बुखार) अजीर्ण (अपच), अतिसार (डायरिया) आमवात (गठिया), पाण्डु (एनीमिया) मधुमेह (डायबिटीज़), कुष्ठ (चर्म रोग)
उदाहरण श्लोक:
“ज्वरस्तु सर्वरोगाणां राजा इव व्यवस्थितः।” (चरक संहिता)
भावार्थ: ज्वर को सभी रोगों का राजा कहा गया है, और इसकी चिकित्सा सबसे पहले करनी चाहिए।
🧒 2. बालचिकित्सा (Kaumarbhritya / Pediatrics & Gynecology) यह अंग बच्चों की चिकित्सा, गर्भधारण, स्तनपान, तथा गर्भवती स्त्री के रोगों से संबंधित है। जन्मजात विकार बालों में कमजोरी, भूख की समस्या स्तनपान की गड़बड़ियां गर्भावस्था में देखभाल
उदाहरण श्लोक:
“क्षीणदोष बलं यत्र बालयो: स्यात्सदा भवेत्।” (काश्यप संहिता)
भावार्थ: बच्चों में दोषों की अधिकता और बल की कमी को पहचानकर उनका उपचार करना आवश्यक है।
🌑 3. ग्रहचिकित्सा (Psychiatry & Occult Disorders) यह अंग मानसिक रोगों, भूत-प्रेत बाधा, और अदृश्य शक्तियों के प्रभाव से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा करता है। मानसिक विकार (मानसिक तनाव, डिप्रेशन) अपस्मार (मिर्गी), उन्माद (पागलपन) भूतबाधा, ग्रहदोष
उदाहरण श्लोक:
“उन्मादं विविधं तं तु दोषाणां संप्रकोपजम्।” (चरक संहिता)
भावार्थ: उन्माद विभिन्न दोषों के कारण उत्पन्न होता है, इसकी चिकित्सा दोषों के शमन से होती है।
👂 4. ऊर्ध्वांगचिकित्सा (ENT & Ophthalmology) यह सिर के ऊपर के अंगों की चिकित्सा करता है: नेत्ररोग (आंखों की समस्या) कर्णरोग (कान की समस्या) नासारोग (नाक की समस्या) मुख एवं दंत रोग (दांत, जीभ, गला आदि)
उदाहरण श्लोक:
“नेत्रं प्रदीपनं लोके शरीरस्य प्रदीपनम्।”
भावार्थ: नेत्र शरीर के लिए दीपक के समान हैं, अतः इनकी रक्षा आवश्यक है।
5. शल्यचिकित्सा (Surgery) यह अंग शल्य क्रिया से संबंधित है: गम्भीर चोट, फोड़े-फुंसी भगंदर (Fistula), अर्श (Piles) सर्जरी जैसे शस्त्रकर्म, क्षारकर्म, अग्निकर्म आचार्य सुश्रुत को ‘शल्य चिकित्सा का जनक’ कहा जाता है।
उदाहरण श्लोक:
“यत्र पिण्डं च पेशीं च रक्तं स्रावयति स्वयम्। शस्त्रं तत्र प्रवक्ष्यामि सुश्रुतं शल्यतन्त्रतः॥”
भावार्थ: जहाँ मांस, रक्त आदि में रोग उत्पन्न हो, वहाँ शल्य चिकित्सा आवश्यक है।
🐍 6. दंष्ट्राचिकित्सा (Toxicology & Poison Treatment) यह विष चिकित्सा से संबंधित है: सर्पदंश (साँप का काटना) कीट विष, पशु विष जहरीले भोजन या औषधि का प्रभाव
उदाहरण श्लोक:
“विषं तु कालवशगं मारकं स्यादकस्मात।”
भावार्थ: विष घातक होता है और समयानुसार अत्यधिक हानि पहुँचा सकता है।
🧓 7. जराचिकित्सा (Rejuvenation Therapy / Rasayan) यह वृद्धावस्था में शरीर को दीर्घायु, तेजस्वी और रोगमुक्त बनाए रखने की चिकित्सा है। स्मृति वर्धन त्वचा की झुर्रियाँ हटाना शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना
उदाहरण श्लोक: “रसायनं बलं मेधां आयुष्यम् च विवर्धयेत्।”
भावार्थ: रसायन चिकित्सा से बल, बुद्धि और आयु की वृद्धि होती है।
🐎 8. वाजीकरण चिकित्सा (Aphrodisiac Therapy) यह यौन शक्ति, संतानोत्पत्ति, और प्रजनन क्षमता को बढ़ाने की चिकित्सा है। पुरुषत्व की कमजोरी स्त्री-पुरुष में यौन रोग शुक्रधातु वर्धन
उदाहरण श्लोक:
“वीर्यं बलं च मेधां च स्मृतिं चोपदिशन्ति ये।”
भावार्थ: वाजीकरण चिकित्सा वीर्य, बल, मेधा और स्मृति को बढ़ाती है।
निष्कर्ष (Conclusion): आयुर्वेद का प्रत्येक अंग शरीर के विभिन्न भागों एवं अवस्थाओं की गहन चिकित्सा करता है। यह न केवल रोगों का निदान करता है बल्कि स्वास्थ्य की रक्षा और जीवन को संतुलित रखने में भी सहायक है। अष्टांग आयुर्वेद के द्वारा शिशु से लेकर वृद्ध, शरीर से लेकर मन, और भूत-बाधा से लेकर विषबाधा तक – हर प्रकार की चिकित्सा की जाती रही है। इस प्रकार, आयुर्वेद एक संपूर्ण चिकित्सा विज्ञान है – “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की भावना से परिपूर्ण।
