क्या आयुर्वेद केवल एक चिकित्सा पद्धति है?
नहीं — यह तो जीवन जीने की एक दिव्य कला है।”
आइए जानें उस दिव्य गाथा को, जिसमें स्वयं भगवान नारायण ने धन्वंतरि रूप में अवतार लेकर आयुर्वेद को इस धरती पर प्रकट किया।
उनके हाथों में अमृत का कलश था और साथ ही वह रहस्य भी, जिससे मनुष्य स्वस्थ रह सकता है और शतायु जीवन जी सकता है।
आज जब पूरी दुनिया पुनः आयुर्वेद की ओर लौट रही है, तो यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि इस विज्ञान का मूल स्रोत क्या है।
समुद्र मंथन से उद्भव: भगवान धन्वंतरि का दिव्य प्राकट्य
स्रोत: भागवत पुराण (स्कंध 8, अध्याय 8–9)
जब देवताओं की शक्ति क्षीण हो गई, और तब असुरों और दैत्यों से देवगण पीड़ित हुए, तभी भगवान विष्णु ने सलाह दी कि क्षीर सागर का मंथन किया जाए। इस महान कार्य में देवता और असुर — दोनों सम्मिलित हुए। जैसे-जैसे मंथन होता गया, अनेक दिव्य रत्न प्रकट हुए। और अंततः — एक अद्भुत, दिव्यतम रत्न के रूप में प्रकट हुए — भगवान धन्वंतरि। उनके हाथों में क्या था? एक हाथ में अमृत कलश, और दूसरे में आयुर्वेद ग्रंथ। उनके तेज, दिव्यता और वैभव को देख कर देवता और असुर — दोनों स्तब्ध रह गए।
समुद्र मंथन कब हुआ, यह श्रावण मास में हुआ था, जो हिंदू पंचांग के अनुसार वर्षा ऋतु का महीना है। समुद्र मंथन की कहानी विष्णु पुराण और भागवत पुराण में विस्तार से वर्णित है। समुद्र मंथन के दौरान, देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र को मथकर 14 अमूल्य रत्नों को प्राप्त किया था, जिनमें से अमृत भी एक था। इन रत्नों में से हलाहल नामक विष भी था, जिसे भगवान शिव ने पी लिया था, जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ा। यह घटना देवताओं और असुरों के बीच युद्ध के बाद हुई थी, जब देवताओं ने अपने अमरता के लिए अमृत की खोज की थी।
नोट: यह समुद्र मंथन की घटना सतयुग के अंत व त्रेतायुग के प्रारंभ में घटित हुई थी।
भगवान धन्वंतरि कौन हैं?
भगवान धन्वंतरि भगवान विष्णु के ही एक अवतार हैं, जिन्होंने मानवता को आरोग्य (स्वास्थ्य) और दीर्घायु प्रदान करने हेतु आयुर्वेद का अवतरण किया। इन्हीं ने आयुर्वेद के अष्टांग रूप (आठ शाखाएँ) का प्रचार-प्रसार किया।
आयुर्वेद की दिव्य उत्पत्ति की परंपरा (परंपरा श्रंखला)
पहला अवतरण: भगवान धन्वंतरि के रूप में स्वयं नारायण ने ब्रह्मा जी को आयुर्वेद का मूल ज्ञान दिया — इसे अथर्ववेद में भी सम्मिलित माना जाता है, क्योंकि इसमें रोग-निवारण व चिकित्सा का उल्लेख है। ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया। दक्ष ने यह ज्ञान अश्विनीकुमारों को दिया, जो देवताओं के वैद्य कहे जाते हैं। वे आयुर्वेद और शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के प्राचीन ज्ञाता माने जाते हैं। अश्विनीकुमारों ने यह ज्ञान इंद्र देव को प्रदान किया। इंद्र ही वह देवता हैं जिन्होंने मानव समाज के लिए यह ज्ञान योग्य शिष्यों को सौंपा।
इंद्र से यह ज्ञान भारद्वाज ऋषि को प्राप्त हुआ। फिर उन्होंने आत्रेय, पुनर्वसु, चरक आदि ऋषियों को यह ज्ञान सिखाया। चरक संहिता में इस परंपरा का उल्लेख है।
सांकेतिक चित्र: महर्षि चरक अपने शिष्यों को आयुर्वेद का ज्ञान प्रदान करते हुए
दूसरा जन्म: काशी में दिवोदास धन्वंतरि के रूप में भविष्य पुराण और काश्यप संहिता के अनुसार, भगवान धन्वंतरि ने पुनः जन्म लिया —
काशी (वाराणसी) में राजा दिवोदास के रूप में। वहीं उन्होंने आयुर्वेद की गूढ़ विद्या को मानव समाज को प्रदान किया। उनके प्रमुख शिष्य थे:
आचार्य सुश्रुत, कर्पूर, वेटाल, औपन्य, भोला। सुश्रुत ने अपने गुरु से प्राप्त आयुर्वेद के दिव्य ज्ञान को सुश्रुत संहिता के माध्यम से लिपिबद्ध कर, जन-जन के लिए प्रतिपादित किया।
सांकेतिक चित्र: महर्षि सुश्रुत अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा का ज्ञान प्रदान करते हुए
आयुर्वेद का प्रसार कैसे हुआ?
* पहले यह श्रुति परंपरा में गुरु-शिष्य परंपरा से सीखा और सिखाया जाता था ।
* फिर संहिताओं के रूप में ग्रंथ तैयार हुए । भारत के विभिन्न हिस्सों में आयुर्वेद का अलग-अलग शाखाओं के रूप में विकास हुआ — जैसे काय चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, बाल चिकित्सा, मानसिक चिकित्सा आदि ।
* नालंदा, तक्षशिला, और अन्य प्राचीन विश्वविद्यालयों में आयुर्वेद पढ़ाया जाता था ।
* विदेशों में भी इसका प्रभाव पड़ा — यूनानी चिकित्सा (यूनानी तिब्ब), तिब्बती चिकित्सा आदि में इसकी छाया देखी जा सकती है ।
निष्कर्ष: यह कथा केवल ऐतिहासिक सत्य के रूप में नहीं बल्कि सांस्कृतिक-सांकेतिक रूप में भी समझी जाती है । इसका उद्देश्य यह बताना है कि आयुर्वेद दैवीय ज्ञान है, जो मानवता के कल्याण के लिए ईश्वर से आरंभ हुआ । आज हम इसे वैज्ञानिक रूप से भी प्रमाणित होते देख रहे हैं — जड़ी-बूटियों, पंचकर्म, और जीवनशैली चिकित्सा के रूप में ।
